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How much value does your self-content add to your facial or outer happiness?

Some people develop a happy face and it gives an imprint that they are really happy inside. Some develop serious faces and give imprints that they are gloomy. They do not feel happiness inside at all. They are the strict ones and highly disciplined and restrictive in terms of expressing their emotion. Have you met such people? or are you one of them? How does that affect your lifestyle or relationship at work or at family gatherings? Do you attract more people towards yourself with your 'always smiling faces'? or Do you repel or push back people? I know getting a smiling face or a grim face is not in our control but your action and reaction to the action is in your control.  What can happen if you have a such constant face? Both of them can face serious problems at work and in relationships. People with smiling and always happy faces can be taken for granted. They would be pushed back to do something that they really don't want to do but can't express properly and can&#
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Learning is Simple: past vs present and course correction

 Learning is not that complicated at all. This is what I believe and some of you might agree or disagree with it. But I disagree completely with the idea of a few eminent experts saying that learning is a complex and complicated process. Yes, I agree that different students or individual learns differently using different medium. But it is not something unique in the case of learning only. Every individual is different in their choices in life in general as well.  Why Am I saying Learning is not Complicated and Simple? It can happen anytime anywhere. Learning is a natural phenomenon and not a mechanical or artificial process. Learning doesn't necessarily need external or internal motivation. It is like breathing which can be controlled by an individual but up to certain limits. Mostly, It is something that happens back in your mind and subconsciously.  Mostly, we prefer a ' medium of learning' where we can learn about complicated things in a simple and comprehensible way.

पढ़ने के लिए जरुरी है रोचकता

आज कल मैं दो-तीन किताबें एक साथ पढ़ रहा हूँ।  किताब यदि आनन्द के लिए पढ़ना है तो ये तरीका काफी अच्छा है। इससे पढ़ने की गति ,रोचकता एवं और जानने की इच्छा बनी रहती है।  इसमें एक पुस्तक मार्मिक रूप में लिखी घटना वृतान्त है जिसे नोबेल पुरस्कृत कैलाश सत्यार्थी जी ने अपने काम एवं बाल श्रम से झुझते एवं विजयी होते बच्चे को मध्य में रख कर लिखी है।  हर पात्र ऊर्जा देता है और अंधेर शहर को पहली किरण सा जगाता प्रतीत होता है।   इसके घटनाक्रम बहुत हद तक दिल को पसीजने वाले हैं।  हर घटना आपको भावुक कर देती है।  इसलिए इसके साथ-साथ मैंने चुनी एक और किताब जो की मैंने पहली बार जब पढ़ी तो सिर्फ पढ़ ली थी पर समझ नहीं पाया था। ये पुष्तक है देश के पहले प्रधानमंत्री की लिखी "भारत की खोज "- "The discovery of India"  इस पुस्तक को में अंग्रेजी संस्करण में पढ़ रहा हूँ क्यूंकि ये अंग्रेजी में ही लिखी गयी थी।  पाठक को हमेशा ये कोशिश करनी चाहिए कि पुस्तक को उसके मूल रूप से लिखी भाषा में ही पढ़ा जाए। चुकी मुझे अंग्रेजी में पढ़कर समझनेमें अब कोई खास दिक्कत नहीं होती तो ऐसा करना मेरे लिए सरल था । पहली किताब क

सबसे कठिन क्या है ?

आप अनुभव किसे कहते हैं ? जो आपके साथ होता है , घटता है ? या जो आपने दुसरो के साथ होते या घटते देखा है ? अनुभव के आधार पर क्या कोई विशिष्ट होना चाहिए या नहीं ? मेरा अनुभव पुरे दिन दुसरो को निर्देश अथवा उपदेश देने में बहुत बेहतर एवं लम्बा है। क्या ये अनुभव किसी बच्चे के अनुभव से बेहतर या विशिष्ट होना चाहिए जो दिनभर अपने परिवार के लोगों को अपने उँगलिओं पर घुमाता रहता है।  मेरी ये राय है की आपके अनुभव एवं आपके ज्ञान की तुलना नहीं होनी चाहिए और ये इसलिए नहीं कि इससे किसी को बड़ा दिखया जा सकता है एवं किसी को निम्न या तुच्छ परन्तु इसलिए कि ये तुलना अर्थहीन है।  मेरी और आपके अनुभव की तुलना इसलिए भी व्यर्थ है क्यूंकि वो एक ही हथकरघे से अलग-अलग स्वरुप की साड़ियाँ के सामान है , सभी एक मापदण्ड के आलों पे होकर भी अलग-अलग हैं ।  सबसे कठिन क्या है ? सबसे कठिन है अर्थहीन लिखना , अर्थहीन बोलना , अर्थहीन कैसे हुआ जाए ? जब भी मन में  कोई विचार आते है वो अर्थहीन नहीं होते , जब भी आप कुछ बोलते हैं, उसमे दृष्टि निहित होती है ,कुछ उद्देश्य निहितार्थ होते हैं , आप चाहकर भी अर्थहीन नहीं हो सकते। अर्थहीन होना नश्

मैं, मेरा मन - मेरा दोस्त

रौनक अपने मा-बापू का एकलौता लड़का है। बापू की प्राइवेट कम्पनी में नौकरी है।   माँ एक हाउस वाइफ हैं  उनका काम घर की सफाई से शुरू होकर घर की सफाई में ही खत्म होता है।  रौनक वैसे स्वभाव से बड़ा भोला आसानी से बात मान जाने वाला एक साधारण बच्चा है लेकिन है तो बच्चा ही तो अपने इसी बचपने में वो कभी न कभी सामान इधर का उधर छोड़ता रहता है | पढ़ने के लिए किताबे -कांपिया निकली तो बेड पर छोड़ दी , खाना खाया तो थाली फर्श पर ही छोड़ दी | माँ को उसकी इस आदत से चिढ होती है  इसलिए कभी-कभी गुस्से में माँ के हाँथ पैर झाड़ू भी चलते रहते हैं  | रौनक की मासूमियत इन्ही थप्पड़ और मार से धुलती जा रही है।  माँ मारने पीटने के कुछ ही देर बाद बड़ा स्नेह भी करती फिर उसे समझ में नहीं आता कि वो क्या करे। ज्यादातर तो वो अपनी मार को भूल जाता और ऐसा वो इसलिए भी करता क्यूंकि उसे लगता है कि वो ज्यादा देर तक किसी से नाराज नहीं रह सकता है। इस उम्र में भी उसमे ये भाव पता नहीं कैसे आ गए थे। माँ के दुलार और स्नेह से उसकी हंसी निकल जाती थी और वो सब भूल के फिर से साधारण सा व्यवहार करने लगता।   बापू के पास इतना समय नहीं है कि इन सब बातों मे

You will not be your scorecard for now!

Your marks in any exam conducted by some school board are not the true reflection of how educated you are! What does 'Grades' tells You?  Education and Examination do not come along as a mechanism that would complement each other rather they do not say anything about the other. Marks based exam in an Indian school tells us nothing about you.  for example,  Ramesh likes to play chess and doing good in the game. He has represented his school in a national level under-16 chess championship.  Playing the game of chess has inbuilt some skills in Ramesh. He is a good orator, confident in his choices. He is patient and believes in solving problems through dialogue and discussion. He strategies and plan before taking any task or work and do not lose temper at the time of stress and external pressure. All these skills he had developed through the game of Chess. Some of the skills he might also have adopted by seeing, observing others and experiencing different situations.  Kiran lives i

Education today is the economy tomorrow

आज हम बात करेंगे जन साधारण के लिए शिक्षा से जुड़ी उम्मीदों की, आखिर पढना-पढाना क्यूँ? आखिर क्यूँ विकासशील देश अपने जी. डी. पी का एक बड़ा हिस्सा अपने स्कूली तंत्र को सुधारने पर खर्च करते है ? प्रत्येक देश अपने नागरिको के विकास को लेकर चिंतित होता है क्योंकि नागरिको के विकास से ही अर्थव्यवस्था का विकास संभव है और बिना इकॉनमी के किसी भी देश मैं अच्छे रोड, अच्छे हवाई अड्डे, अच्छे प्लेटफार्म , अच्छे अस्पताल जैसी आधारभूत  संरचना का सम्भव हो पाना कठीन है, तो ऐसा माना जा सकता है कि विकास की पहली सीढ़ी स्कूली शिक्षा ही होती है |  Education today is the economy tomorrow श्रीमान एंड्रियास श्लेचर (शैक्षिक निति सलाहकार-महासचिव ओ.ई .सि. डी ) कह रहें हैं  "Education today is the economy tomorrow " आज स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता कल अर्थव्यवस्था का निर्धारण करेगी। ” एंड्रियास श्लेचर के इस कथन पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है | ख़ासकर तब जब पूरा संसार एक प्रकार से जूझ रहा हो | बड़े-बड़े परमाणु शक्तियों से लैस देश की अर्थव्यवस्था सिर्फ इसलिए चित हो गई क्यूंकि उन्होंने सावधानी नहीं बरती एवं अपन