वक्त बे वक्त अपनी ही बात करता है,
ठहरता नही हैं, सुनना नही है, समझता भी नही हैं ।
एक पल को ठहरना जब थके ना हों,
सुनना ऐसे कि समझना चाहते हो,
जब सुन पाओ तो सोचना क्या बदलता है,
जब सुन पाते हो समुद्र की गहरी तलवटी
पर्वत की ऊचाईओ को,
रूके-दौड़ते सतही जीवो को,
घ्वनियो से परे, शब्दो से परे,
भावो को, विचारो को, पीड़ा-व्यथा सोहाद्र को ।
ठहरना तब व्यर्थ नहीं, तीर्थ लगेगा,
मंजिल तव थी दूर होगी, धैर्य रहेगा,
पुछ पाओगे कोमल सवाल, तब बात करना,
व्यर्थ, वोझिल, कृत्रिम नही सहज लगेगा।
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