भारत में जितने भी धार्मिक सम्प्रदाय विकसित हुए उनमें से अहिंसावाद को उतना महत्त्व किसी ने भी नहीं दिया, जितना जैन धर्म ने दिया है। बौद्ध धर्म में, फिर भी, अहिंसा की एक सीमा है कि स्वयं किसी जीव का वध न करो, किन्तु जैनों की अहिंसा बिलकुल निस्सीम है। स्वयं हिंसा करना, दूसरों से हिंसा करवाना या अन्य किसी भी भी तरह से हिंसा में योग देना. जैन धर्म में सबकी मनाही है। और विशेषता यह है कि जैन दर्शन केवल शारीरिक अहिंसा तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत, वह बौद्धिक अहिंसा को भी अनिवार्य बताता है। यह बौद्धिक अहिंसा ही जैन दर्शन का अनेकान्तवाद है।
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अहिंसा का आदर्श, आरम्भ से ही, भारत के समक्ष रहा था, किन्तु, उसकी चरम-सिद्धि, इसी अनेकान्तवाद में हुई। इस सिद्धान्त को देखते हुए ऐसा लगता है कि संसार को, बहुत जागे चलकर, जहाँ पहुँचना है, भारत वहाँ पहले ही पहुँच चुका था। संसार में आज जो अशान्ति है, रह-रहकर विश्व में युद्ध के जो खतरे दिखाई देने लगते हैं, उनका कारण क्या है? मुख्य कारण यह है कि एक वाद के माननेवाले लोग दूसरे वादों को माननेवालों को आँख मूँदकर गलत समझते हैं। साम्यवादी समझते हैं कि प्रजातन्त्री देश बिलकुल गलत राह पर हैं और प्रजातन्त्र के समर्थकों की दृष्टि में सारी गलती साम्यवादियों की है। इसी प्रकार, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जो कोलाहल है, उसका मूल कारण यह है कि लोग विरोधी मतों के प्रति अत्यन्त असहनशील हो गए हैं, और, तब भी, सत्य यह है कि कोई भी मत सोलह आने सत्य या सोलह आने असत्य नहीं है। चीजें एक बिन्दु से जैसी दिखाई देती हैं, दूसरे बिन्दु से ठीक वैसी ही दिखाई नहीं देतीं। अतएव, आँख मूँदकर किसी मत को सर्वथा खंडित करने का कार्य हिंसा का कार्य है। अनेक मतों में किसी एक को पकड़कर बैठ जाना और यह मान लेना कि और सारे मत झूठे हैं, इसे विद्या का अहंकार कहना चाहिए। सत्य क्या है, इसे जानने का कोई एक मार्ग नहीं है। और सत्य के मार्ग पर आए हुए व्यक्ति की सबसे बड़ी पहचान भी यही है कि उसका दुराग्रह छूट जाता है। जो सच्चे अर्थों में सन्त हैं, वे अपने ऊपर भी शंका करते हैं और एक सिद्धान्त को मानते हुए भी, वे यह भाव बनाए रहते हैं कि, सम्भव है, अन्य सिद्धान्तों में भी सत्त्य का कोई अंश हो, जो हमें दिखाई नहीं पड़ा है। समन्वय, सह-अस्तित्व और असहिष्णुता, ये एक ही तत्त्व के अनेक नाम हैं। इस तत्त्व को जैन दर्शन शारीरिक घरातल पर अहिंसा और मानसिक धरातल पर अनेकान्त कहता है। जीवों को कष्ट नहीं देना, यह शारीरिक अहिंसा की पहचान है। किन्तु, जो चिन्तक और मनीषी हैं, वे जब आँख मूंदकर विरोधी मतों पर प्रहार करते हैं, तब उनका भी यह कार्य हिंसा का कार्य होता है। जन-साधारण को जीव-हिंसा से बचाने के लिए जैन दर्शन ने अहिंसा का उपदेश दिया, किन्तु, चिन्तकों और विचारकों को हिंसा-कर्म से विरत करने के लिए उसने अनेकान्त का सिद्धान्त निकाला। और यह उचित भी है, क्योंकि निचले स्तर पर तो मतों, वादों और विचारों को लेकर, जोर से, वहस की जा सकती है, किन्तु, विचारक जब अत्युच्च घरातल पर पहुँचते हैं, तब वे किसी भी बात को पूरे जोर से नहीं कह सकते, न बहस करते समय उनकी आँखों में मशाल ही जलती है। मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण है और ऐसी कोई राह नहीं है, जिस पर चलकर एक ही व्यक्ति सत्य के सभी पक्षों की जानकारी प्राप्त कर सके। इसीलिए, हम जो जानते हैं, यह ठीक है। किन्तु, उतना ही ठीक वह व्यक्ति भी हो सकता है, जो हमारे विरुद्ध खड़ा है। अतएव, सच्चा अहिंसक विचारक किसी भी बात को बहुत जोर से नहीं कहता। अपने मतों को इस जोर से रखना, मानो, केवल वे ही ठीक हों, यह अहंकार का प्रदर्शन है, यह हिंसा और अधर्म है।
अनेकान्तवाद का दार्शनिक आधार यह है कि "प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण, पर्याय और धमों का अखंड पिंड है। वस्तु को तुम जिस दृष्टिकोण से देख रहे हो, वस्तु उतनी ही नहीं है। उसमें अनन्त दृष्टिकोणों से देखे जाने की क्षमता है। उसका विराट् स्वरूप अनन्त धर्मात्मक है। तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालूम होता है, उस पर ईमानदारी से विचार करो तो उसका विषयभूत धर्म भी वस्तु में विद्यमान है। चित्त से पक्षपात की द्रभिसन्धि निकालो और दूसरे के दृष्टिकोण के विषय को भी सहिष्णुतापूर्वक खोजो, वह भी वहीं लहरा रहा है।" इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेकान्त का अनुसन्धान भारत की अहिंसा-साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना ही शीघ्र अपनाएगा, विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।
114/ संस्कृति के चार अध्याय
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