आप अनुभव किसे कहते हैं ? जो आपके साथ होता है , घटता है ? या जो आपने दुसरो के साथ होते या घटते देखा है ? अनुभव के आधार पर क्या कोई विशिष्ट होना चाहिए या नहीं ? मेरा अनुभव पुरे दिन दुसरो को निर्देश अथवा उपदेश देने में बहुत बेहतर एवं लम्बा है। क्या ये अनुभव किसी बच्चे के अनुभव से बेहतर या विशिष्ट होना चाहिए जो दिनभर अपने परिवार के लोगों को अपने उँगलिओं पर घुमाता रहता है।
मेरी ये राय है की आपके अनुभव एवं आपके ज्ञान की तुलना नहीं होनी चाहिए और ये इसलिए नहीं कि इससे किसी को बड़ा दिखया जा सकता है एवं किसी को निम्न या तुच्छ परन्तु इसलिए कि ये तुलना अर्थहीन है। मेरी और आपके अनुभव की तुलना इसलिए भी व्यर्थ है क्यूंकि वो एक ही हथकरघे से अलग-अलग स्वरुप की साड़ियाँ के सामान है , सभी एक मापदण्ड के आलों पे होकर भी अलग-अलग हैं ।
सबसे कठिन क्या है ? सबसे कठिन है अर्थहीन लिखना , अर्थहीन बोलना , अर्थहीन कैसे हुआ जाए ? जब भी मन में कोई विचार आते है वो अर्थहीन नहीं होते , जब भी आप कुछ बोलते हैं, उसमे दृष्टि निहित होती है ,कुछ उद्देश्य निहितार्थ होते हैं , आप चाहकर भी अर्थहीन नहीं हो सकते। अर्थहीन होना नश्वर होने के सामान है ? जीवित प्राणी अर्थहीन कैसे हो सकता है, ना ही वो अर्थहीन कह सकता है, सोच सकता है , लिख सकता है , इसलिए सबसे कठिन है अर्थहीन होना।
किन्तु आमतौर पर हम इस बात को समझते नहीं या समझ कर भी पराया कर देते हैं। जब भी आप किसी को अर्थहीन होने का विश्वास दिलाते है , वास्तव में आप उसे कहना चाहते हैं की आपके विचार से में सहमत नहीं हूँ , या आपका विचार सम्भव नहीं लगता अथवा ये की आपका विचार मेरे समझ के परे है। क्यूँकि अर्थहीन हो पाना तो सम्भव ही नहीं है। इसलिए जब भी आपके मन में ऐसा विचार आए जहाँ सबकुछ अर्थहीन लगने लगे तो पुनः एक बार गहन चिंतन जरूर करें कि कहीं ये सिर्फ आपकी सतही कल्पना तो नहीं। एक व्यक्ति अर्थहीन कैसे हो सकता है , कोई भी परिस्थिति अर्थहीन कैसे हो सकती है , यदि इन परिस्थितिओं से मैं परेशान हूँ तो भी मुझे ये समझने की आवश्यकता है कि इन परिस्थिति में कुछ अर्थ निहित है जो मेरी इच्छा के अनुरूप नहीं।
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