किसी भी देश में व्यक्ति विकास बहुत हद तक वहां कि शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षा देने कि पद्धति के साथ-साथ शिक्षा को लेकर समाज में स्थापित समझ पर भी निर्भर करता है | यदि हम अपने देश कि बात करें तो काफी प्रचलित कहावत " पढोगे लिखोगे बनोगे नवाब , खेलोगे धुपोगे होगे ख़राब " से ही समझ में आ जाता है कि उत्तर भारत में शिक्षा को लेकर क्या प्रचलित है | समाज में शिक्षा का उद्देश्य नवाब बनना है , नवाब से क्या तात्पर्य है ? नवाब का एक मतलब अधिकारी बनाना हो सकता है जिसके पास सरकारी गाड़ी हो, नौकर -चाकर हों, वो जो कहे लोग उसे सुनने और मानने को तत्पर रहें | नवाब का अपने हिसाब से कोई भी मतलब निकला जा सकता है किन्तु ये तो तय है कि नवाब समृद्ध है और ये समृद्धि धन, विचार, भावनाओ, संवेदनाओं, आचरण, ज्ञान, विज्ञान, तकनीक के रूप में हो सकती है | पर मुख्यता हमारे समाज मे शिक्षा का उद्देश्य धन और वैभव की समृधि तक ही सीमित हो गई है।
एक बच्चा जब पहली बार स्कूल जाता है यदि हम उस दिन का विचार करें और गहनता से सोंचे कि उस बच्चे के इर्द-गिर्द उसके परिवार में उस बच्चे के लिए क्या भाव चल रहें होंगे जैसे माता -पिता , दादा-दादी, नाना-नानी के मन में क्या विचार आया कि उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजने का निर्णय लिया है | जब एक बच्चा पहली बार स्कूल आता है तो उस समय शिक्षक या शिक्षिका के मन में उस बच्चे को लेकर क्या भाव होते होंगे | क्या ये बच्चों को देखकर उनके भविष्य का निर्धारण करने के लिए अपने अनुमान को स्वावलंबीत करना शुरु कर देते है ? उस एक बच्चे के लिए समाज के लोगों के अन्दर क्या भाव होतें होंगे ? क्या ये लोग जो सामाजिक रूप से किसी न किसी रूप मे उस बच्चे के जीवन से जुड़े है जैसे बच्चे की दाई माँ , पड़ोस के लोग , रिश्तेदार, दूध देने वाला या अन्य कोई | इन सभी लोंगो के मन में क्या चल रहा होगा ? ये उस बच्चे के सन्दर्भ में क्या विचार कर रहें होंगे ? उनके मन में बच्चे को लेकर क्या आकांक्षा, अभिलाषा, उम्मीद उमड़ रहे होंगे | देश अपने उस बच्चे को लेकर क्या सोचता है ? देश उस बच्चे से क्या उम्मीद बांध बैठा है? आप मन ही मन अपने बच्चों से क्या उम्मीद बांध बैठे हैं? इन सभी प्रश्नों पर विचार करें |
बच्चा क्या उम्मीद बांध बैठा है ?
अब अपना ध्यान उस बच्चे की तरफ लेकर जायें | अभी तक हमने बच्चे के इर्द गिर्द के लोगों के बारें में चर्चा की है कि वो क्या सोच रहें होंगे | अब उस बच्चे का विचार कीजिये| अपना विचार कीजिये जब आपने पहली बार अपने घर से अलग एक ऐसी जगह कदम रखा था जो शायद आपके घर से बिलकुल अलग था | विद्यालय (आपके समय आंगनवाडी केंद्र शायद नहीं रहा हो ) एक ऐसी जगह थी जो आपके घर जैसी नहीं थी साथ ही साथ वहां के लोग आपके घर के जैसे नहीं दीखते होंगे | आपके रोने या हसने पर घर की तरह कोई आपकी तरफ खीचा नहीं आता होगा | शायद आपने अपने जैसे हम उम्र को देख कर कुछ राहत महसूस की हो पर जैसे ही अपने पाया की आपको जो स्कूल छोड़ने आये थे वो जा रहें है फिर आपका मन पिघलने लगा होगा | कुछ तो फुट फुट कर रोने भी लगे होंगे | कुछ दिन यु ही गुजरने के बाद अब आप स्कूल से जुड़ने लगे | धीरे-धीरे वहां के लोग भी अपने व जानकर हो गये | ऐसा क्यूँ हुआ ? क्यूँ आप समय के साथ सहज होते चले गए ?
शिक्षक एवं समाज के अनुसार अब बच्चे ने स्कूल में बैठना सिख लिया है | अब आगे कि पढाई कराई जा सकती है | अब आती है वर्णमाला एवं गिनती की बारी और शिक्षण संस्थओं ने शिक्षको को बच्चोँ के लिए तमाम अधिगम बढाने की एक पूरी लिस्ट पकड़ा दी है। इसी समय को कहा जाता है नीव डालने का समय। जैसे घर की नीव जितनी मजबुत होगी घर उतना ही विशाल और भव्य बनाया जा सकता है, वैसे ही अब शिक्षक और अभिवावक के अनुसार बच्चोँ के जीवन मे शिक्षा के नीव डालने का उचित समय यही माना जाता है।
अब मैं अपनी बात बताता हुँ। मैं ऐसा मानता हुँ कि मकान मैं पड़ी नीव और बच्चे के शिक्षा कि शुरुआती नीव भिन्न-भिन्न हैं। आज के परिपेक्ष में बात करूँ तो दोनो के बीच एकरूपता बनाना मानव जीवन को कम अंकने जैसा है। घर बनाने के लिए पड़ी नीव घर की सीमा निर्धरित करती है जैसे घर कितने मंजिल का या कितने कमरो का बनेगा, कैसे आकर का बनेगा अगेराह- बगेराह । परन्तु आज बच्चोँ की शिक्षा से जुडी नीव उसकी सीमा निर्धारित नही कर पाती बल्कि इसके उलट बच्चे मे मौजुद खनिज रुपी प्रयत्नशील उर्जा उसके असीमित क्षमताओं का निरंतर प्रमाण देती है। अतः यह कहना कदापि उचित नही की यहाँ शिक्षक का काम लोहा पिघलाना है ताकी बाद मे जाकर उसे आकर दिया जा सके। यहाँ शिक्षक का काम मुख्यता बच्चोँ मे विध्यमान उर्जा का सही रुप मे संरक्षण करना और बाद मे इस उर्जा का सही उपयोग करना सिखना होना ही उपयुक्त होना चाहिए ।
हर मनुष्य की सीमाएं है किन्तु हर व्यक्ति अपनी सीमायों में कुछ न कुछ निरंतर रूप में सिख रहा होता है , अपने अनुभव एवं ज्ञान को क्रमशः परख रहा होता है | उसी रूप में यदि हम बच्चों को देखें तो उनके साथ भी सीखना एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है | अपने अनुभव को टटोलें तो आप पाएँगे कि बच्चा सायद संसार को समझने में प्रयत्नशील है , लैटिन अमेरिका में जन्म लेने वाला बच्चा नियमित रूप से अपने आस-पास घट रही घटनाओ को देखकर समाज एवं परिवार में प्रतिक्रिया देने का एल्गोरिथम विकसित कर रहा होता है उसी प्रकार अन्य देश के बच्चे भी अपने परिवेश को आधार मानकर सीख रहे होते हैं | इनमे भी कुछ चीजे स्थानीय आधार पर भिन्न-भिन्न होती है और कुछ तो प्राकृतिक रूप में सभी बच्चों में एक समान होती है |बच्चे को पता है कि उसे भूख लगने पर रोने की प्रतिक्रिया करनी है | जैसे-जैसे वो विकसित होता जाता है , वैसे-वैसे उसकी प्रतिक्रिया वयस्क मनुष्य के अनुरूप ढलती जाती है और ऐसा एक बच्चा अपने अनुकरण करने के स्वाभाविक कौशल से कर पाता है | अतः बिना किसी सिखाने के प्रयास के भी बच्चा बहुत कुछ महत्वपूर्ण सीख रहा होता है | ये प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से उसके अन्दर चलती है किन्तु यदि इसी प्रक्रिया को अलग रूप में देखें तो ऐसा भी कहा जा सकता है कि हमने (वयस्क मनुष्य ने) बिना किसी अतरिक्त प्रयास के बच्चे को (जन्म से जबतक की वो विद्यालय जाने योग्य हो गया है) बहुत कुछ सिखा दिया है | बच्चे को अपनी जरुरत व्यक्त करना , प्रतिक्रिया देना , खुशी महसूस करना , अनुभव करना जैसे अनेक जीवन कौशल सिखाने का प्रयाश नियोजित तोर पर नहीं करना पड़ता |
भाषा सिखने-सीखने को लेकर लगभग 200 वर्षो से चिंतकों ने अपने विचार दियें हैं और आज भी कई प्रयास किये जा रहें हैं | जन्मजात शिशु अपनी मातृभाषा सिखने के लिए क्या प्रयास करता है इसपर विचार करने की आवश्यकता शिक्षा से जुड़े हर व्यक्ति को है,इसके उलट शिशु को मातृभाषा सिखाने के लिए माता-पिता एवं परिवार के लोगों को क्या-क्या प्रयास करते रहने होते हैं ? इसपर भी विचार कीजिये | ये विचार उन सभी व्यक्तियों को करना चाहिए जिन्होंने अपने बच्चे का नामांकन विद्यालय में कराने का सोच रखा है या भविष्य में कराना चाहते हैं !
अब जब बच्चे का विद्यालय आना नियमित होने लगा है और उसकी रुची अपने दोस्तों में बनने लगी है , उसने अपने अनुसार दोस्त बनाना शुरु कर दिया है तो ऐसा कहा जा सकता है उसका समाज में जुड़ने एवं सम्बन्ध स्थापित करने के कौशल का विकास होने लगा है | सम्बन्ध स्थापित एवं पोषित करने के लिए मनुष्य में जितनी भावनाएँ होती है , बच्चे उन सभी भावनाओ का अभ्यास शुरु कर चूका है | सम्मान , करुणा , निष्ठा , त्याग , ममता, कृतज्ञता , चिंता के साथ-साथ क्रोध , ईष्या , घमंड , श्रेष्ठता , हिंसा जैसे भावों का विकास होने लगता है | इन सभी भावनाओ को पोषण परिवार , समाज एवं स्कूल में घट रहे कृत से ही मिलता है | उचित है कि बच्चा समाज में हो रही घटनाओ का अनुकरण ही करता जाता है और परिवार समाज एवं आस-पास घट रही घटनाओ को ही आधार मानकर अपने लिए स्वतः ही मूल्यों का चयन कर लेता है | यही मूल्य समय के साथ निरंतर अभ्यास से ऐसे जुड़ते जाते हैं कि इनसे पार पाना या इनमे संसोधन ला पाना असंभव होने लगता है | उदाहरण के तौर पर जब एक बच्चा अपने विद्यालय में नियमित रूप से हिंसा देख रहा होता है जहाँ उसे ये समझ में आने लगता है कि किसी प्रकार कि गलती की सजा हिंसा ही है और इसी से गलती से होने वाली समस्या का समाधान होने वाला है तो वो भी अपने से कमजोर बच्चों की गलती पर हिंसा करने को आतुर होता है | उसकी हर समस्या का निदान हिंसा पर ही टिकने लगता है और कब देश की शिक्षा व्यवस्था बच्चों को हिंसक बना देती है खुद शिक्षक, माता- पिता एवं शिक्षा तंत्र को भी इसका अनुमान लगा पाना नामुमकिन हो जाता है |
बच्चों में स्वतः जागृत भावनाए कब जीवन मूल्य बन जाती है और निरंतर अभिपोषण से ये मूल्य जीवन के आधार बन जाते हैं पता भी नहीं चलता | जो बच्चा जैसे जीवन मूल्यों को पिरोये हुए होगा उसका जीवन दर्शन वैसा ही विकसित होने लगता है और वो समाज में उसी प्रकार अपनी भूमिका स्थापित कर पायेगा | यदि हमने वर पक्ष द्वारा दहेज़ लेना सामाजिक रूप से सही माना है और इसे समाज में सही साबित करने के लिए तर्कहीन कारण भी दिए हैं, तो भी ये नहीं माना जा सकता की उस समाज में रहने वाला बच्चा जब व्यस्क हो जायेगा तो अचानक से दहेज़ लेने-देने कि प्रक्रिया का विरोध करने लगेगा | क्योंकि उसने समय के साथ तर्कहीन कारण को ही अपने जीवन मूल्य का आधार बना लिया है | अब उन मूल्यों को अलग कर पाना उस व्यक्ति के लिए सरल प्रक्रिया नहीं है |
जिस शिक्षा की आज हम बात कर रहें हैं वो जो विद्यालय में सप्ताह के छः दिन और समाज में हर दिन देना अनिवार्य हो गया है , मैं मानता हूँ ये नीव नहीं है | इससे भविष्य का निर्धारण संभव नहीं है, इससे भले आपके प्रोफेशन का निर्धारण किया जा सकता हो किन्तु, बच्चों के आरंभिक दिनों में सामाजिक मूल्यों के जीवन मूल्य/आधार बनने कि प्रक्रिया में जो शिक्षा सार्थक योगदान दे पाए उससे ही बच्चे के भविष्य के एक स्तम्भ का निर्धारण संभव है , उसके भविष्य में न्यायसंगत, संवेदनशील, विवेकशील एवं इमानदार व्यक्तिव बनने की पूरी उम्मीद होगी | अतः शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य प्रोफेशनल निर्माण के साथ-साथ व्यक्तिव निर्माण का भी होना चाहिए | एक तकनीकी रूप से सक्षम प्रोफेशनल किसी भी समाज के लिए तभी कल्याणकारी हो सकता जब उसने मानवीय मूल्य (करुणा, प्रेम , सौहार्द , सम्मान, कृतज्ञता, निष्ठा, संवेदना, ईमानदारी, विनम्रता, साहस) को सही रूप में अपने जीवन मूल्य का अंग बनाया हो |
चलिए बहुत समय ये समझने में निकाल दिया है कि आज अधिकतर विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा का महत्वपूर्ण समय विषय सम्बंधित पढाई एवं ज्ञानवर्धन के साथ -साथ व्यक्तित्व निर्माण के लिए भी दिया जाना चाहिए | अगले अंक में हम अन्य देशों कि शिक्षा से जुड़ी कुछ बाते जानने एवं विचार करने का प्रयास करेंगे |
अंत करने से पहले कुछ साझा करना चाहता हूँ |
But societies are creaking under the strain of
बच्चों से क्या उम्मीद बांध बैठे हैं आप ?
एक बच्चा जब पहली बार स्कूल जाता है यदि हम उस दिन का विचार करें और गहनता से सोंचे कि उस बच्चे के इर्द-गिर्द उसके परिवार में उस बच्चे के लिए क्या भाव चल रहें होंगे जैसे माता -पिता , दादा-दादी, नाना-नानी के मन में क्या विचार आया कि उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजने का निर्णय लिया है | जब एक बच्चा पहली बार स्कूल आता है तो उस समय शिक्षक या शिक्षिका के मन में उस बच्चे को लेकर क्या भाव होते होंगे | क्या ये बच्चों को देखकर उनके भविष्य का निर्धारण करने के लिए अपने अनुमान को स्वावलंबीत करना शुरु कर देते है ? उस एक बच्चे के लिए समाज के लोगों के अन्दर क्या भाव होतें होंगे ? क्या ये लोग जो सामाजिक रूप से किसी न किसी रूप मे उस बच्चे के जीवन से जुड़े है जैसे बच्चे की दाई माँ , पड़ोस के लोग , रिश्तेदार, दूध देने वाला या अन्य कोई | इन सभी लोंगो के मन में क्या चल रहा होगा ? ये उस बच्चे के सन्दर्भ में क्या विचार कर रहें होंगे ? उनके मन में बच्चे को लेकर क्या आकांक्षा, अभिलाषा, उम्मीद उमड़ रहे होंगे | देश अपने उस बच्चे को लेकर क्या सोचता है ? देश उस बच्चे से क्या उम्मीद बांध बैठा है? आप मन ही मन अपने बच्चों से क्या उम्मीद बांध बैठे हैं? इन सभी प्रश्नों पर विचार करें |
बच्चा क्या उम्मीद बांध बैठा है ?
अब अपना ध्यान उस बच्चे की तरफ लेकर जायें | अभी तक हमने बच्चे के इर्द गिर्द के लोगों के बारें में चर्चा की है कि वो क्या सोच रहें होंगे | अब उस बच्चे का विचार कीजिये| अपना विचार कीजिये जब आपने पहली बार अपने घर से अलग एक ऐसी जगह कदम रखा था जो शायद आपके घर से बिलकुल अलग था | विद्यालय (आपके समय आंगनवाडी केंद्र शायद नहीं रहा हो ) एक ऐसी जगह थी जो आपके घर जैसी नहीं थी साथ ही साथ वहां के लोग आपके घर के जैसे नहीं दीखते होंगे | आपके रोने या हसने पर घर की तरह कोई आपकी तरफ खीचा नहीं आता होगा | शायद आपने अपने जैसे हम उम्र को देख कर कुछ राहत महसूस की हो पर जैसे ही अपने पाया की आपको जो स्कूल छोड़ने आये थे वो जा रहें है फिर आपका मन पिघलने लगा होगा | कुछ तो फुट फुट कर रोने भी लगे होंगे | कुछ दिन यु ही गुजरने के बाद अब आप स्कूल से जुड़ने लगे | धीरे-धीरे वहां के लोग भी अपने व जानकर हो गये | ऐसा क्यूँ हुआ ? क्यूँ आप समय के साथ सहज होते चले गए ?
शिक्षक एवं समाज के अनुसार अब बच्चे ने स्कूल में बैठना सिख लिया है | अब आगे कि पढाई कराई जा सकती है | अब आती है वर्णमाला एवं गिनती की बारी और शिक्षण संस्थओं ने शिक्षको को बच्चोँ के लिए तमाम अधिगम बढाने की एक पूरी लिस्ट पकड़ा दी है। इसी समय को कहा जाता है नीव डालने का समय। जैसे घर की नीव जितनी मजबुत होगी घर उतना ही विशाल और भव्य बनाया जा सकता है, वैसे ही अब शिक्षक और अभिवावक के अनुसार बच्चोँ के जीवन मे शिक्षा के नीव डालने का उचित समय यही माना जाता है।
अब मैं अपनी बात बताता हुँ। मैं ऐसा मानता हुँ कि मकान मैं पड़ी नीव और बच्चे के शिक्षा कि शुरुआती नीव भिन्न-भिन्न हैं। आज के परिपेक्ष में बात करूँ तो दोनो के बीच एकरूपता बनाना मानव जीवन को कम अंकने जैसा है। घर बनाने के लिए पड़ी नीव घर की सीमा निर्धरित करती है जैसे घर कितने मंजिल का या कितने कमरो का बनेगा, कैसे आकर का बनेगा अगेराह- बगेराह । परन्तु आज बच्चोँ की शिक्षा से जुडी नीव उसकी सीमा निर्धारित नही कर पाती बल्कि इसके उलट बच्चे मे मौजुद खनिज रुपी प्रयत्नशील उर्जा उसके असीमित क्षमताओं का निरंतर प्रमाण देती है। अतः यह कहना कदापि उचित नही की यहाँ शिक्षक का काम लोहा पिघलाना है ताकी बाद मे जाकर उसे आकर दिया जा सके। यहाँ शिक्षक का काम मुख्यता बच्चोँ मे विध्यमान उर्जा का सही रुप मे संरक्षण करना और बाद मे इस उर्जा का सही उपयोग करना सिखना होना ही उपयुक्त होना चाहिए ।
सीखना : प्राकृतिक प्रक्रिया है
हर मनुष्य की सीमाएं है किन्तु हर व्यक्ति अपनी सीमायों में कुछ न कुछ निरंतर रूप में सिख रहा होता है , अपने अनुभव एवं ज्ञान को क्रमशः परख रहा होता है | उसी रूप में यदि हम बच्चों को देखें तो उनके साथ भी सीखना एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है | अपने अनुभव को टटोलें तो आप पाएँगे कि बच्चा सायद संसार को समझने में प्रयत्नशील है , लैटिन अमेरिका में जन्म लेने वाला बच्चा नियमित रूप से अपने आस-पास घट रही घटनाओ को देखकर समाज एवं परिवार में प्रतिक्रिया देने का एल्गोरिथम विकसित कर रहा होता है उसी प्रकार अन्य देश के बच्चे भी अपने परिवेश को आधार मानकर सीख रहे होते हैं | इनमे भी कुछ चीजे स्थानीय आधार पर भिन्न-भिन्न होती है और कुछ तो प्राकृतिक रूप में सभी बच्चों में एक समान होती है |बच्चे को पता है कि उसे भूख लगने पर रोने की प्रतिक्रिया करनी है | जैसे-जैसे वो विकसित होता जाता है , वैसे-वैसे उसकी प्रतिक्रिया वयस्क मनुष्य के अनुरूप ढलती जाती है और ऐसा एक बच्चा अपने अनुकरण करने के स्वाभाविक कौशल से कर पाता है | अतः बिना किसी सिखाने के प्रयास के भी बच्चा बहुत कुछ महत्वपूर्ण सीख रहा होता है | ये प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से उसके अन्दर चलती है किन्तु यदि इसी प्रक्रिया को अलग रूप में देखें तो ऐसा भी कहा जा सकता है कि हमने (वयस्क मनुष्य ने) बिना किसी अतरिक्त प्रयास के बच्चे को (जन्म से जबतक की वो विद्यालय जाने योग्य हो गया है) बहुत कुछ सिखा दिया है | बच्चे को अपनी जरुरत व्यक्त करना , प्रतिक्रिया देना , खुशी महसूस करना , अनुभव करना जैसे अनेक जीवन कौशल सिखाने का प्रयाश नियोजित तोर पर नहीं करना पड़ता |
भाषा सिखने-सीखने को लेकर लगभग 200 वर्षो से चिंतकों ने अपने विचार दियें हैं और आज भी कई प्रयास किये जा रहें हैं | जन्मजात शिशु अपनी मातृभाषा सिखने के लिए क्या प्रयास करता है इसपर विचार करने की आवश्यकता शिक्षा से जुड़े हर व्यक्ति को है,इसके उलट शिशु को मातृभाषा सिखाने के लिए माता-पिता एवं परिवार के लोगों को क्या-क्या प्रयास करते रहने होते हैं ? इसपर भी विचार कीजिये | ये विचार उन सभी व्यक्तियों को करना चाहिए जिन्होंने अपने बच्चे का नामांकन विद्यालय में कराने का सोच रखा है या भविष्य में कराना चाहते हैं !
मानवीय मूल्य कैसे विकसित होती जाती है !
अब जब बच्चे का विद्यालय आना नियमित होने लगा है और उसकी रुची अपने दोस्तों में बनने लगी है , उसने अपने अनुसार दोस्त बनाना शुरु कर दिया है तो ऐसा कहा जा सकता है उसका समाज में जुड़ने एवं सम्बन्ध स्थापित करने के कौशल का विकास होने लगा है | सम्बन्ध स्थापित एवं पोषित करने के लिए मनुष्य में जितनी भावनाएँ होती है , बच्चे उन सभी भावनाओ का अभ्यास शुरु कर चूका है | सम्मान , करुणा , निष्ठा , त्याग , ममता, कृतज्ञता , चिंता के साथ-साथ क्रोध , ईष्या , घमंड , श्रेष्ठता , हिंसा जैसे भावों का विकास होने लगता है | इन सभी भावनाओ को पोषण परिवार , समाज एवं स्कूल में घट रहे कृत से ही मिलता है | उचित है कि बच्चा समाज में हो रही घटनाओ का अनुकरण ही करता जाता है और परिवार समाज एवं आस-पास घट रही घटनाओ को ही आधार मानकर अपने लिए स्वतः ही मूल्यों का चयन कर लेता है | यही मूल्य समय के साथ निरंतर अभ्यास से ऐसे जुड़ते जाते हैं कि इनसे पार पाना या इनमे संसोधन ला पाना असंभव होने लगता है | उदाहरण के तौर पर जब एक बच्चा अपने विद्यालय में नियमित रूप से हिंसा देख रहा होता है जहाँ उसे ये समझ में आने लगता है कि किसी प्रकार कि गलती की सजा हिंसा ही है और इसी से गलती से होने वाली समस्या का समाधान होने वाला है तो वो भी अपने से कमजोर बच्चों की गलती पर हिंसा करने को आतुर होता है | उसकी हर समस्या का निदान हिंसा पर ही टिकने लगता है और कब देश की शिक्षा व्यवस्था बच्चों को हिंसक बना देती है खुद शिक्षक, माता- पिता एवं शिक्षा तंत्र को भी इसका अनुमान लगा पाना नामुमकिन हो जाता है |
बच्चों में स्वतः जागृत भावनाए कब जीवन मूल्य बन जाती है और निरंतर अभिपोषण से ये मूल्य जीवन के आधार बन जाते हैं पता भी नहीं चलता | जो बच्चा जैसे जीवन मूल्यों को पिरोये हुए होगा उसका जीवन दर्शन वैसा ही विकसित होने लगता है और वो समाज में उसी प्रकार अपनी भूमिका स्थापित कर पायेगा | यदि हमने वर पक्ष द्वारा दहेज़ लेना सामाजिक रूप से सही माना है और इसे समाज में सही साबित करने के लिए तर्कहीन कारण भी दिए हैं, तो भी ये नहीं माना जा सकता की उस समाज में रहने वाला बच्चा जब व्यस्क हो जायेगा तो अचानक से दहेज़ लेने-देने कि प्रक्रिया का विरोध करने लगेगा | क्योंकि उसने समय के साथ तर्कहीन कारण को ही अपने जीवन मूल्य का आधार बना लिया है | अब उन मूल्यों को अलग कर पाना उस व्यक्ति के लिए सरल प्रक्रिया नहीं है |
जिस शिक्षा की आज हम बात कर रहें हैं वो जो विद्यालय में सप्ताह के छः दिन और समाज में हर दिन देना अनिवार्य हो गया है , मैं मानता हूँ ये नीव नहीं है | इससे भविष्य का निर्धारण संभव नहीं है, इससे भले आपके प्रोफेशन का निर्धारण किया जा सकता हो किन्तु, बच्चों के आरंभिक दिनों में सामाजिक मूल्यों के जीवन मूल्य/आधार बनने कि प्रक्रिया में जो शिक्षा सार्थक योगदान दे पाए उससे ही बच्चे के भविष्य के एक स्तम्भ का निर्धारण संभव है , उसके भविष्य में न्यायसंगत, संवेदनशील, विवेकशील एवं इमानदार व्यक्तिव बनने की पूरी उम्मीद होगी | अतः शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य प्रोफेशनल निर्माण के साथ-साथ व्यक्तिव निर्माण का भी होना चाहिए | एक तकनीकी रूप से सक्षम प्रोफेशनल किसी भी समाज के लिए तभी कल्याणकारी हो सकता जब उसने मानवीय मूल्य (करुणा, प्रेम , सौहार्द , सम्मान, कृतज्ञता, निष्ठा, संवेदना, ईमानदारी, विनम्रता, साहस) को सही रूप में अपने जीवन मूल्य का अंग बनाया हो |
धन्यवाद
चलिए बहुत समय ये समझने में निकाल दिया है कि आज अधिकतर विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा का महत्वपूर्ण समय विषय सम्बंधित पढाई एवं ज्ञानवर्धन के साथ -साथ व्यक्तित्व निर्माण के लिए भी दिया जाना चाहिए | अगले अंक में हम अन्य देशों कि शिक्षा से जुड़ी कुछ बाते जानने एवं विचार करने का प्रयास करेंगे |
अंत करने से पहले कुछ साझा करना चाहता हूँ |
"Too often, inequality is framed around economics,
fed and measured by the notion that
making money is the most important thing in life.
But societies are creaking under the strain of
this assumption, and while people may protest
to keep pennies in their pockets, power is the
protagonist of this story: the power of the
few; the powerlessness of many; and collective
power of the people to demand change.
Going beyond income will require tackling
entrenched interests—the social and political
norms embedded deep within a nation’s or a
group’s history and culture."
Achim Steiner
Administrator
United Nations Development Programme
विचार कीजिये !
Photo Credit: Social Media
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